हमारे देश में अब भी सवाल करना बदतमीजी मानी जाती है : इरफान
कद्दावर अभिनेता इरफान की सलामती की दुआ उनके चाहन वाले लगातार कर रहें हैं। उनकी फिल्म अंग्रेजी मीडियम विचित्र परिस्थितियों के बीच रिलीज हुई है। वह रेगुलर प्रमोशन तो नहींं कर पाए, मगर उन्होंने सवाल मंगवा कर उनके जवाब अपने चाहने वालों को दिए थे। फाइटर इरफान से जुड़े सवालों को भी उन्होंने अवॉइड करना मुनासिब समझा। उसका दैनिक भास्कर सम्मान करता है। उन सवालों को छोड़ पेश हैं उनसे मिले चंद सवालों के जवाब:-
-अंग्रेजी मीडियम में कौन से रंग हैं, जो इसे पिछली फिल्म से अलग करते हैं?
हिंदी मीडियम से तो बिल्कुल अलग है अंग्रेजी मीडियम। एक बाप है जो बस दोनों फिल्मों में कॉमन है। पर दोनों फिल्मों की पृष्ठभूमि बिल्कुल अलग है। एक दिल्ली के चांदनी चौक में ओरिजिनल मनीष मल्होत्रा की कॉपी कर रहा था। वह दिल्ली6 की गलियों से विस्थापित होकर पॉश कॉलोनी में रहने की विवशता पर थी। वह भी अपने बच्चे की एडमिशन के लिए।
– एक और कॉमन चीज है कि यह भी हल्के-फुल्के अंदाज में ही कुछ गहरा कहना चाहती है?
जी हां। अंग्रेजी मीडियम तो राजस्थान का रंग लिए हुए है। कहानी तो चिड़ियों के उड़ान की तरह है। आप खाना देते रहें तो मुंडेर पर वापस लौटना है। यह चिड़ा और चिडुते की कहानी है। इसमें शैली भी अलग रखी गई है। हल्के-फुल्के अंदाज में कुछ कहने की कोशिश की गई है। जैसा मैंने पहले भी कहा था। यह भी हंसाएगी, रुलाएगी और फिर हंसाएगी। रोते-रोते हंसने का मजा ही कुछ और है ना।
-देश दुनिया की शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजी लैंग्वेज की गिरफ्त में हैं। इससे हमारी शिक्षा व्यवस्था पर क्या असर पड़ा है। क्या हम उस गिरफ्त से अलग होते नजर आ रहे हैं?
हम अंग्रेजी की गिरफ्त में हैं। इसे नकार तो नहीं सकते। लेकिन आत्म सम्मान भाषा पर तय नहीं होती। अंग्रेजी जान लेने से मैं ज्यादा संवेदनशील हो जाऊंगा या अच्छा साहित्यकार या कलाकार बन जाऊंगा ऐसा नहीं है। मगर हम इस बात को भी नकार नहीं सकते कि हिंदुस्तान में गलत अंग्रेजी हमारे रुतबे को तहस-नहस करती है। अंग्रेजी जानना बहुत अच्छी बात है, पर उसे मापदंड बनाकर किसी को आंकना गलत है। मैं यह तो नहीं कहूंगा कि अंग्रेजी का असर खत्म हो रहा है। मगर हां बदलाव तो आ रहा है।
– मतलब अंग्रेजी कमजोर होने के चलते, जो कॉम्प्लेक्स रहा करता था वह कम हुआ है?
जी हाँ। मुझे अब पेन का उच्चारण पैण करने पर इतनी शर्मिंदगी नहीं होती, जितनी 10 साल पहले हुआ करती थी। क्योंकि अमेरिका इंग्लैंड से के अलावा ऐसे कई देश हैं जो शायद हमें याद ना रहते हो पर वह सब अपनी मातृभाषा से शर्मसार नहीं होते।
– नवाज के साथ द लंचबॉक्स में आप की केमिस्ट्री और हिंदी मीडियम से दीपक डोबरियाल के संग का साथ दोनों की कॉमेडी को आप को कैसे देखते हैं। अपने जीवन में किन कुछ कलाकारों से आप को सीखने सिखाने को मिला। कोई वाकया शेयर कर सकें?
नवाज बहुत ही बेहतरीन अदाकार हैं। दीपक और मेरा साथ हिंदी मीडियम में भी था और अब भी है। दीपक के साथ इंप्रोवाइजेशन बहुत होता है। जुगलबंदी कह सकते हैं इसे। कितना भी अच्छा शॉट दो वह कैच पकड लेता है।
-अंग्रेजी मीडियम में राजस्थान है पूरी तरह। राजस्थानी पैदाइशी ह्यूमरस माने जाते हैं। इसकी क्या वजह है? राजस्थानी फिल्म जगत उतना ग्रो नहीं कर पाया, जितना मराठी या साउथ। रीजन क्या पाते हैं?
जब टोपोग्राफी इतना रूखा हो तो इंसान रसीला बन ही जाता है। वहां की फिल्म इंडस्ट्री की नाकामयाबी की वजह शायद लोगों के मूल में व्यवसायिक मिजाज का होना है। अधिकतर लोग व्यावसायिक समुदाय से हैं। सिर्फ व्यवसाय की तरह फिल्मों को नहीं देखना चाहिए। साथ ही सामाजिक तौर पर राजस्थान कंजरवेटिव रहा है। मेरी मां को ही ले लो आज भी मैं अगर प्रोफेसर बन जाऊं तो उन्हें ज्यादा खुशी होगी। यह तो सब जानते हैं कि पूरे राजस्थान से देश को बेस्ट चार्टर्ड अकाउंटेंट मिलते हैं। यह एक स्टेट के दिमाग की तरफ इशारा भी करते हैं।
-आज की तारीख की फिल्ममेकिंग के कौन से पहलू आप को इंस्पायर कर रहे हैं। हाल की किन फिल्मों ने आप को सरप्राइज किया है बॉलीवुड से। और किन तकनीकों और स्टोरीटेलिंग के तरीकों से बॉलीवुड को लैस होते देखना चाहेंगे?
आज के तारीख में नए चेहरों का आना और उनका छा जाना बहुत कमाल की बात है। अलग कहानियों का महत्वपूर्ण स्थान है। बिना फूहड़ हुए फिल्में एंटरटेनिंग बन रही हैं यह बड़ी बात है। एक अहम हासिल है हमारे इंडस्ट्री के लिए। हॉलीवुड में एक बहुत खास बात है कि वहां फार्मूला फिल्में भी बनती हैं तो वे सवाल करती हैं। हमारे देश में सवाल करना आज भी बदतमीजी मानी जाती है। सवाल करने वाली डॉक्यूमेंट्री, फिल्में अगर बनाई भी जाएं तो उनके खरीदार नहीं है। यह कमी तो खलती है।